सनातन हिंदू धर्म में भगवान को ईश्वर, परमात्मा और ब्रह्म जैसे अनेक नामो से संबोधित किया जाता है इस बात को शास्त्र में भी विद्वान्, संतों और ज्ञानियों ने लिखा है,
एकम् सत्यं विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात् एक ही परम् तत्व को विद्वान् अनेक नमों से संबोधित करते है।
सनातन हिंदू धर्म में सभी नामों में सबसे प्रसिद्ध नाम भगवान है सनातन हिंदू धर्म पृथ्वी का सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक धर्म है यह इतना वैज्ञानिक है कि इसके भाषा भी वैज्ञानिक है हर शब्द का सामान्य और विशेष अर्थ होता है।
आइये हम भगवान शब्द का अर्थ को प्रामाणिक रूप से जानने का प्रयास करते है,
प्रथम अर्थ – वार्णिक अर्थ (शब्द के हर अक्षर का अर्थ जब लगाया जाता है उसे वार्णिक अर्थ कहा जाता है)
भ – भूमि (पृथ्वी)
ग – गगन (आकाश)
व – वायु (हवा)
अ – अग्नि (आग)
न – नीर (जल)
इन्ही पाँच तत्वों से सृष्ठि बनी है और भगवान में इन पाँच तत्वों का स्वामित्व होने से भगवान इस सृष्ठि के पाँचो तत्वों के स्वामी है।
द्वितीय अर्थ – शाब्दिक अर्थ
जैसे किसी के पास बल होता है उसे बलवान कहते है जिसके पास ज्ञान होता है उसे ज्ञानवान कहते है जिसके पास विद्या होती है उसे विद्यावान कहते है जिसके पास गुण होते है उसे गुणवान कहते है और उसी प्रकार जिसके पास छः गुण असीम और अनन्त रूप से हो उसे भगवान कहते है।
क्या है यह छः गुण?
पहला गुण — सम्पूर्ण ऐश्वर्य। ( जिसके पास कभी ना अंत होने वाला ऐश्वर्य हो)
दूसरा गुण — संपूर्ण वीर्य ( जिसके पास कभी ना अंत होने वाली वीरता हो)
तीसरा गुण— सम्पूर्ण यश (जिसके पास कभी ना अंत होने वाला यश हो)
चौथा गुण — सम्पूर्ण श्री। (जिसके पास कभी ना अंत होने वाली श्री अर्थात् लक्ष्मी हो)
पाँचवा गुण — सम्पूर्ण वैराग्य (जिसके पास सब कुछ होने पर भी सम्पूर्ण वैराग्य हो)
छटा गुण — सम्पूर्ण ज्ञान (जिसके पास सब कुछ होने पर भी सम्पूर्ण ज्ञान हो)
इन छः गुणों के समूह को भग कहा जाता है
भगोऽस्ति अस्मिन इति भगवान्
संसार में देखा जा सकता है कि किसी व्यक्ति या वस्तु में इन छः में से कुछ गुण हो सकते है परन्तु सभी छः गुण वो भी सम्पूर्ण अनंत रूप से नहीं हो सकते है। किसी के पास यश हो सकता है पर धन नहीं, किसी के पास ज्ञान हो सकता है पर वीरता नहीं,इसी प्रकार किसी में भी यह छः गुण एक साथ सम्पूर्ण रूप एक ही समय पर नहीं हो सकते है यह केवल भगवान में ही हो सकते है।